Thursday, May 31, 2007

नवतपा

आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी जी ने मेरे आरंभ में प्रकाशित नवतपा संबंधी पोस्‍ट पर जो प्रश्‍न किया था वह था : नवतपा 19 से ही प्रारंभ हो चुका है जबकि कई कहते हैं कि 25 से प्रारंभ, ऐसा क्यों…… जिस हिसाब से आपने जानकारी दी तो फ़िर क्या ये ग्रह इतनी जल्दी पुनरावृत्ति करते हैं?

मेरे विचार : वैसे मैं इसका उत्‍तर आपको व्‍यक्तिगत मेल के द्वारा भी भेज दिया हूं ।
जिस संबंध में आपने प्रश्न किया है वह विशद विवेचन योग्य प्रश्न है जिस पर पूरा एक लेख लिखा जा सकता है । भारतीय ज्योतिष में पिछले कुछ समय से राशियों एवं नक्षत्रों की काल गणना के संबंध में एक अदृष्य अंकुरण फूटने को कुलबुला रहा है क्योकि राशि बारह हैं एवं नक्षत्र २७ इस प्रकार से नक्षत्रों के आधार पर काल विभाजन ज्यादा सूक्ष्म होगा (वैदिक कालिक ग्रन्थो मे नक्षत्रों के आधार को ज्यादा महत्व दिया गया है)। वैदिक काल के उपरान्त भारतीय ज्योतिष ने भारत मे राशियो के आगमन पर नक्षत्रों का तालमेल बिठाने के लिये तथा नक्षत्रों की आकृति को वैग्यानिक आधार देने के लिये अन्य तारा मण्डलो से कुछ तारे ले लिये इस प्रकार गणितीय नक्षत्र विभाजन एव नक्षत्रों की वास्तविक कोणात्मक स्थिति मे कुछ विसन्गतिया रह गयी (आ गयी) ।

नक्षत्रों के काल गणना को आधार मानने वाले लोग वैज्ञानिक आधार पर खगोलीय स्थितियों एवं प्राचीन ज्योतिष मत में परस्पर सामजस्य बिठाने का प्रयास कर रहे हैं जिनके अनुसार परिस्थितिगत सिद्धांत विकसित हो रहे हैं जिसे लोग कपोल कल्पित सिद्धांत भी कह देते हैं जैसे “कालसर्प सिद्धांत” हमारे किसी भी पौराणिक ज्योतिष शास्त्र में “कालसर्प योग” के रूप में विद्धमान नही है फिर भी इसका कितना हौआ और मान्यता है आप स्वयं जानते होंगे । ऐसे ही “नव तपा” के संबंध में हमारा ज्योतिष जो कहता है उसे देखें :

ज्येष्ठ मासे सिते पक्षे आर्द्रादि दशतारका ।
सजला निर्जला ज्ञेया निर्जला सजलास्तथा ।।

ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में आद्रा नक्षत्र से लेकर दस नक्षत्रों तक यदि बारिस हो तो वर्षा ऋतु में इन दसो नक्षत्रों में वर्षा नही होती, यदि इन्ही नक्षत्रों में तीव्र गर्मी पडे तो वर्षा अच्छी होती है । भारतीय ज्योतिष में उपरोक्तानुसार “नवतपा” को परिभाषित कर लिया गया है यानी कि चंद्रमा जब ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में आर्द्रा से स्वाती नक्षत्र तक के अपनी स्थितियों में हो एवं तीव्र गर्मी पडे, जो प्राय: होता है तो वह नवतपा है (हमारे वैदिक ज्योतिष मे “नवतपा” जैसे काल का कोई सैद्धान्तिक विवरण नही है)। इस अनुसार से नवतपा १९ मई से प्रारंभ हो चुका है।

अब परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर देखें मैने अपने चिट्ठे में ग्रहीय स्थितियों के साथ जो कविता दिया था उसमें वृष राशि में स्थित सूर्य की गर्मी का उल्लेख है जो कवि नें सामान्य ज्ञान के अनुसार (अनुभव के आधार पर) लिखा है भारत में ऐसे बहुत लोगों का मानना है कि सूर्य वृष राशि में ही पृथ्वी पर आग बरसाता है और खगोल शास्त्र के अनुसार वृषभ तारामण्डल में जो नक्षत्र हैं वे हैं कृतिका, रोहिणी और मृगशिरा (वृषभो बहुलाशेषं रोहिण्योऽर्धम् च मृगशिरसः .. ) जिसमें कृतिका सूर्य, रोहिणी चंद्र, मृगशिरा मंगल अधिकार वाले नक्षत्र हैं इन तीनों नक्षत्रों में स्थित सूर्य गरमी ज्यादा देता है ।

अब प्रश्न यह कि इन तीनों नक्षत्रों में सर्वाधिक गरम नक्षत्र अवधि कौन होगा इसके पीछे खगोलीय आधार है इस अवधि मे सौर क्रांतिवृत्त में शीत प्रकृति रोहिणी नक्षत्र सबसे नजदीक का नक्षत्र होता है जिसके कारण सूर्य गति पथ में इस नक्षत्र पर आने से सौर आंधियों में वृद्धि होनी स्वाभाविक है इसी कारण परिस्थितिजन्य सिद्धांत कहता है कि जब सूर्य वृष राशि में रोहिणी नक्षत्र में आता है उसके बाद के नव चंद्र नक्षत्रों का दिन “नवतपा” है ।

अब देखें सूर्य इस बीच किन नक्षत्रों में रहा १९ मई जब चंद्रमा आर्द्रा में प्रवेश किया सूर्य ११ मई से कृतिका में था जो २५ मई तक संध्या ६.३४ तक रहा फिर २५ मई को ही सूर्य संध्या ६.३५ को रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश किया जो ८ जून संध्या ४.३१ तक रहेगा। राशिगत स्थितियों में सूर्य १५ मई को प्रात: ९.१८ को वृष राशि में प्रवेश किया जो १५ जून को दोपहर ३.५२ तक रहेगा । सूर्य विगत कई वर्षों से २३ - २५ मई को रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश कर रहा है जो लगभग १३ से १५ दिन तक एक ही नक्षत्र में रहता है और इसी समय “नवतपा” की स्थिति रहती है ।

वैसे इन सभी स्थितियों को समझने के लिए ज्योतिष का सामान्य ज्ञान एवं नक्षत्र ज्योतिष के संबंध में वर्तमान में हो रहे प्रयोगों को ध्यान में रखना आवश्यक है ।

Monday, May 21, 2007


Tuesday, May 8, 2007

ज्योतिष

विवादास्पद किन्तु बोधगम्य

ज्योतिष २१ वी सदी में शुरू से ही विवादास्पद रहा है इसके अस्तित्व एवं विश्वास के संबंध में तर्क कुतर्क होते रहे हैं । इसके पीछे पूर्ण रूप से इसके ब्राहमणवादी इच्छाशक्ति रही है । वैदिक काल एवं तदनंतर वराहमिहिर, कल्याण वर्मा, भास्कराचार्य, ढुण्ढिराज तक के समय ज्योतिष के संबंध में लिखे गये ग्रथों में इसे सहज बनाने के प्रयास स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि उस काल में यह विधा एक व्यावसायिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित नही था । यह एक ज्ञान था एवं उस काल में ज्ञान का सम्मान किया जाता था ।

मैं ज्योतिष ग्रंथों के सहज व सरल होने की बात इसलिए कर रहा हूं कि उस समय लिखे गये अन्य धर्म एवं दर्शन के ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों को, यदि आप संस्कृत का थोडा भी ज्ञान रखते हैं तो देखें उसके शव्दों का उच्चारण ही इतना कठिन है कि उसका शाब्दिक अर्थानुमान लगाना सामान्य नही है अपितु भरतीय ज्योतिष दर्शन के ग्रंथों को देखें शाव्दिक अर्थ स्पष्ट होते हैं । मेरे अनुमान के अनुसार ज्योतिष चूंकि खगोलीय अघ्ययन का मिथिकीय रूप था इसलिए इसे जन सामान्य बनाना हमारे मनीषियों नें आवश्यक समझा था । चंद्र व सूर्य की गोचर गति से वातावरण में होने वाले प्रभावों को सामान्य विज्ञ भी समझ सकें व भविष्य में होने वाली घटनाओं के प्रति सचेत रहें यह हमारे मनीषियों का उद्धेश्य था ।


इसी संबंध में मैं एक और उदाहरण देना चाहूंगा, वैदिक काल में हमें धर्म व दर्शन के भारी भरकम ग्रंथों के अतिरिक्त या उनके अंदर ही समाहित नित्य कर्म व पूजा पद्धति के जो अंश दिये वो भी सहज व सरल थे क्योंकि पूजा व आराधना ही वैदिक संस्कृति व धर्म का आधार था । धर्म की स्थापना के लिए पूजा व आराधना के मंत्रों को जनसुलभ कराना मनीषियों की आवश्यकता थी इसलिए ज्योतिष ग्रंथों की रचना सरल व बोधगम्य संस्कृत में की गयी ।

ज्योतिष पर व्यावसायिकता हावी

तदनंतर में जैसे जैसे ज्योतिष पर व्यावसायिकता हावी होने लगी इसका रूप एवं अर्थ विवादास्पद होते गया । पहले ज्योतिष ज्ञान का आधार था फिर धन का आधार बन गया । धनलोलुपता की यही गंदी मानसिकता नें ज्योतिषियों के साथ साथ इस ज्ञान को भी विवादित बना दिया । इसके र्निविवादित होने के भी कई उदाहरण हैं मुझे ऐसे कई व्यक्तियों के संबंध में जानकारी है जो बिना अर्थलोलुपता के नि:स्वार्थ भाव से जानकारी में आये बच्चों की कुण्डली -जन्म पत्री बिना अभिभावक या जातक के अनुरोध के बनाते थे और उसमें अपनी टीका टिप्पणी स्वांत: सुखाय करते थे एवं अभिभवक या जातक के मांगने पर बिना दक्षिणा के उन्हे प्रदान कर देते थे । आज इस छोटे से कार्य की दक्षिणा नही मूल्य कहिए कितना है । आप स्वयं देख सकते हैं, जन्म पत्री का मूल्य बनाने वाले की लोकप्रियता के ग्राफ के अनुसार तय होता है । जबकि कुण्डलीगत गणित की गणना के आधार में कुछ विशेष सिद्धांतों को गौड समझा जाए तो, कोई अंतर नही होता । वही कुण्डली मुफत में उपलब्ध साफटवेयरों के आधार पर अक्षांस देशान्तर व समय संस्कार के उचित प्रवृष्टि के बाद आप मुफत में पा सकते हैं जो तथाकथित ज्योतिष हजारों रूपयों में पंदान करते हैं ।

ज्योतिष की व्यावसायिकता में वृद्धि का एक कारण और रहा है जिसका संबंध मानसिकता से है । दशानुसार व गोचरवश ग्रहों के भ्रमण का व्यक्ति के जीवन पर पडने वाले कुप्रभावों का इस प्रकार विश्लेषण कि जातक भय के वशीभूत होकर नग व नगीनों के पीछे भगता है या तो पूजा अनुष्ठान हेतु उदघत होता है । इन दोनों कार्यों से ज्योतिषी को भय सं धनउपार्जन का सरल राह मिल जाता है । गणना की तृटि, नगो की अशुद्धता या पूजा अनुष्ठान में पंडितों की स्वार्थता और ८० प्रतिशत उस जातक की इच्दाशक्ति में कमी के कारण असफलता, हानि, अपयश मिलने लगाता है जो जीवन का सामान्य क्रम है तब जातक आलोचना करने लगता है और ज्योतिष फिर बदनाम होता है ।


परिस्थितियों के प्रति भय दिखाना पंडितों का वैदिक काल के बाद धन व वैभव प्राप्ति का साधन रहा है पाराशर होरा शास्त्र का एक उदाहरण देखिये -
यो नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्योतिषं खलु निन्दति ।
रौरवं नरकं भुक्त्वा चान्धत्वं चान्यजन्मनि ।।
(जो मनुष्य ईस शास्त्र को न जानते हुए ज्योतिषशास्त्र की निंदा करता है, वह रौरव नरक को भोग कर दूसरे जनम में अंधा होता है ।।)
इसी क्रम में समय समय पर नये नये भयंकर योग प्रकट हुए थोथे परंपरायें विकसित की गयी जो वैदिक ग्रंथों में भी नही थे । शायद इसीलिए ज्योतिष एक विवादास्पद विषय हो गया ।
संजीव तिवारी

ज्योतिष प्रयोग भाग १


ज्योतिष के संबंध में मानसी जी के चिटठों को पढनें के बाद मुझे लगा कि जब तक उनका लिखना बंद है तब तक आप लोगों के लिए विषय से संबंधित जानकारी को आगे बढाया जाए यद्धपि मानसी जी के लेख व ज्ञान के सामने मेरा कोई अस्तित्व नही है फिर भी मैं प्रयास कर रहा हूं उन्होंने लिखना क्यों बंद कर दिया यह भी मेरे मन में एक बेहद जिज्ञासु प्रश्न है क्या लोग निरूत्साहित करते हैं इस विवादित विषय का जानकार होने का दावा करने पर खैर इसका उत्तर भी समय दे देगा अभी तो आपके लिए कुछ और जानकारी -


किसी भी जन्म पत्री का फलित या उसके संबंध में जानकारी प्राप्त करने विश्लेषण करने में बहुत सी बातों ज्योतिष के सिद्धांतों समयानुसार व अनुभव में प्राप्त ज्ञान अनुमान को ध्यान में रखा जाता है जिसको क्रमश: धीरे धीरे इस ज्ञान से परिचय होने पर व कुण्डली दर कुण्डली देखने भूत के घटनाओं को कुण्डली में खोजने से प्राप्त किया जा सकता है मैं स्वयं अभी इस विद्या का प्रशिच्छु हूं । हम यहां सामान्य रूप से आरंभिक तौर पर जन्म पत्री विश्लेषण के पूर्व जो मुख्य तत्व हमें ध्यान में रखने पडते हैं वे ये हैं -


१ भाव या धर - कुण्डली में १२ खाने होते हैं प्रत्येक खाने का ज्योतिष के अनुसार अलग अलग नाम है एवं इनका आपके व्यक्तित्व पर अलग अलग प्रभाव पडते हैं । पहला भाव या धर को लग्न कहा जाता है इससे आपके व्यक्तित्व, प्रकृति एवं संपूर्ण जीवन पद्धति के संबंध में जानकारी ली जाती है । दूसरा धर धन भाव कहलाता है इससे आपके जीवनकाल में प्राप्त होने वाले धन के संबंध में जानकारी ली जाती है । तीसरा धर को पराक्रम का भाव कहा जाता है इससे आपकी क्षमता ज्ञात की जाती है । चौथे धर को सुख भाव कहा जाता है इससे आपके जीवन में सुख व वैभव की जानकारी ली जाती है । पांचवे धर को पुत्र भाव कहा जाता है इससे आपके संतान के संबंध में विचार किया जाता है । छठे धर को शत्रु भाव कहा जाता है इससे आपके शत्रु, विरोधियों के संबंध में विचार किया जाता है । सातवां भाव पत्नी का भाव होता है इससे पत्नी के संबंध में विचार किया जाता है । आठवां भाव मृत्यु का भाव कहा जाता है इससे जातक की मृत्यु या जीवन के संबंध में विचार किया जाता है । नवम भाव को भाग्य भाव कहा जाता है इससे आपके भाग्य के संबंध में विचार किया जाता है । दसवा घर को कर्म एवं राज्य भाव कहा जाता है इससे आपके कार्यक्षेत्र के संबंध में विचार किया जाता है । ग्यारहवां घर को आय भाव कहा जाता है इससे आपके आय के संबंध में विचार किया जाता है । बारहवें घर को व्यय भाव कहा जाता है इससे आपके द्वारा किये जाने वाले खर्च के संबंध में विचार किया जाता है ।

हमने उपर जो भाव का नाम व संक्षिप्त विवरण दिया है वह आंशिक है ज्योतिष में इन बारह भावों के उपरोक्त लिखित क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य विशद क्षेत्रों को भी समाहित किया गया है एवं कुछ मानसी जी के कथनानुसार यह व्यवहारिक रूप से कुण्डली के क्रमबद्ध अघ्ययन के बाद कौन सा विचार किस भाव से किया जाय यह स्वत: ही समझ में आ जाता है ।

२ भावों में स्थित राशि - यह जानकारी मानसी जी के द्वारा पूर्व में दी जा चुकी है जिस भाव में जो राशि होगा उस भाव में वह अपनी प्रकृति के अनुरूप प्रभाव डालेगा।

मेषो वृषश्च मिथुनः कर्क सिंहकुमारिकाः ।
तुलालिधनुषो नक्रकुम्भमीनास्ततः परम् ।।

३ भावों में बैठे ग्रह - यह जानकारी मानसी जी के द्वारा पूर्व में दी जा चुकी है जिस भाव में जो ग्रह होगा उस भाव में वह अपनी प्रकृति के अनुरूप प्रभाव डालेगा।



४ ग्रहों की दृष्टि - प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से ९० अंश के कोण पर सीधी नजरों से देखता है । कुण्डली में ९० अंश का कोण या सीधी दृष्टि का मतलब है सातवां धर यानी सभी ग्रह अपने बैठे घर से सातवें घर को देखता है एवं कुछ ग्रहों के पास मान्यता के अनुसार अतिरिक्त दृष्टि भी होती है यथा -
मंगल चौथे व आठवें, गुरू पांचवें व नवें एवं शनि अपने स्थान से तीसरे व दसवें घर को भी पूर्ण प्रभाव से देखते हैं । जिस भाव में जो ग्रह अपनी दृष्टि डालेगा उस भाव में वह अपनी प्रकृति के अनुरूप प्रभाव भी डालेगा।


५ राशि स्वामी - वैदिक मान्यताओं के अनुसार प्रत्येक ग्रह किसी निश्चित तारामण्डल जिसे राशि कहा जाता है का स्वामी होता है और राशि स्वामी अपने स्थान का घ्यान अवश्य रखता है भले ही वह ग्रह गोचर के कारण दूसरी राशि में चले जाय यदि कुण्डली में ग्रह अपनी राशि में है तो वह उस भाव पर अपना शुभ प्रभाव डालेगा। राशियों के स्वामी इस प्रकार हैं -

१ मेष मंगल
२ वृष शुक्र
३ मिथुन बुध
४ कर्क चंद्र
५ सिंह सूर्य
६ कन्या बुध
७ तुला शुक्र
८ वृश्चिक मंगल
९ धनु गुरू
१० मकर शनि
११ कुंभ शनि
१२ मीन गुरू

६ ग्रहों की उच्चता व नीचता - उंच या नीच प्रभाव में भावों में स्थित ग्रह शुभ या अशुभ प्रभाव डालते हैं अर्थात यदि उच्च राशि का ग्रह धन भाव में हो तो धनागमन की संभावनाये हमेशा खुली रहती हैं इसी प्रकार यदि निम्न राशि का ग्रह धन भाव में हो तो धनागमन की संभावनाओं में विराम लग जाता है ।

सूर्य मेष १० उच्चांंश तुला १० नीचांश
चंद्र वृष ३ उच्चांंश वृश्चिक ३ नीचांश
मंगल मकर २८ उच्चांंश कर्क २८ नीचांश
बुध कन्या १५ उच्चांंश मीन १५ नीचांश
गुरू कर्क ५ उच्चांंश मकर ५ नीचांश
शुक्र मीन २७ उच्चांंश कन्या २७ नीचांश
शनि तुला २० उच्चांंश मेष २० नीचांश
राहु मिथुन १५ उच्चांंश धनु १५ नीचांश
केतु घनु १५ उच्चांंश मिथुन १५ नीचांश

७ ग्रहों के परस्पर व्यवहार - प्रत्येक ग्रह अपनी प्रकृति व वैदिक मान्यताओं के अनुसार एक दूसरे से मित्रवत, शत्रुवत एवं साम्य व्यवहार करते हैं हमें इनके परस्पर व्यवहारों को जानना होगा क्योंकि भावों में दो दो ग्रह एक साथ हो सकते हैं एक ग्रह पर दूसरे ग्रह की दृष्टि हो सकती है इन सबको देखते हुए हमें ग्रहों के बीच के संबंधों को जानना होगा -

क्रमश: