विवादास्पद किन्तु बोधगम्य
ज्योतिष २१ वी सदी में शुरू से ही विवादास्पद रहा है इसके अस्तित्व एवं विश्वास के संबंध में तर्क कुतर्क होते रहे हैं । इसके पीछे पूर्ण रूप से इसके ब्राहमणवादी इच्छाशक्ति रही है । वैदिक काल एवं तदनंतर वराहमिहिर, कल्याण वर्मा, भास्कराचार्य, ढुण्ढिराज तक के समय ज्योतिष के संबंध में लिखे गये ग्रथों में इसे सहज बनाने के प्रयास स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि उस काल में यह विधा एक व्यावसायिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित नही था । यह एक ज्ञान था एवं उस काल में ज्ञान का सम्मान किया जाता था ।
मैं ज्योतिष ग्रंथों के सहज व सरल होने की बात इसलिए कर रहा हूं कि उस समय लिखे गये अन्य धर्म एवं दर्शन के ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों को, यदि आप संस्कृत का थोडा भी ज्ञान रखते हैं तो देखें उसके शव्दों का उच्चारण ही इतना कठिन है कि उसका शाब्दिक अर्थानुमान लगाना सामान्य नही है अपितु भरतीय ज्योतिष दर्शन के ग्रंथों को देखें शाव्दिक अर्थ स्पष्ट होते हैं । मेरे अनुमान के अनुसार ज्योतिष चूंकि खगोलीय अघ्ययन का मिथिकीय रूप था इसलिए इसे जन सामान्य बनाना हमारे मनीषियों नें आवश्यक समझा था । चंद्र व सूर्य की गोचर गति से वातावरण में होने वाले प्रभावों को सामान्य विज्ञ भी समझ सकें व भविष्य में होने वाली घटनाओं के प्रति सचेत रहें यह हमारे मनीषियों का उद्धेश्य था ।
इसी संबंध में मैं एक और उदाहरण देना चाहूंगा, वैदिक काल में हमें धर्म व दर्शन के भारी भरकम ग्रंथों के अतिरिक्त या उनके अंदर ही समाहित नित्य कर्म व पूजा पद्धति के जो अंश दिये वो भी सहज व सरल थे क्योंकि पूजा व आराधना ही वैदिक संस्कृति व धर्म का आधार था । धर्म की स्थापना के लिए पूजा व आराधना के मंत्रों को जनसुलभ कराना मनीषियों की आवश्यकता थी इसलिए ज्योतिष ग्रंथों की रचना सरल व बोधगम्य संस्कृत में की गयी ।
ज्योतिष पर व्यावसायिकता हावी
तदनंतर में जैसे जैसे ज्योतिष पर व्यावसायिकता हावी होने लगी इसका रूप एवं अर्थ विवादास्पद होते गया । पहले ज्योतिष ज्ञान का आधार था फिर धन का आधार बन गया । धनलोलुपता की यही गंदी मानसिकता नें ज्योतिषियों के साथ साथ इस ज्ञान को भी विवादित बना दिया । इसके र्निविवादित होने के भी कई उदाहरण हैं मुझे ऐसे कई व्यक्तियों के संबंध में जानकारी है जो बिना अर्थलोलुपता के नि:स्वार्थ भाव से जानकारी में आये बच्चों की कुण्डली -जन्म पत्री बिना अभिभावक या जातक के अनुरोध के बनाते थे और उसमें अपनी टीका टिप्पणी स्वांत: सुखाय करते थे एवं अभिभवक या जातक के मांगने पर बिना दक्षिणा के उन्हे प्रदान कर देते थे । आज इस छोटे से कार्य की दक्षिणा नही मूल्य कहिए कितना है । आप स्वयं देख सकते हैं, जन्म पत्री का मूल्य बनाने वाले की लोकप्रियता के ग्राफ के अनुसार तय होता है । जबकि कुण्डलीगत गणित की गणना के आधार में कुछ विशेष सिद्धांतों को गौड समझा जाए तो, कोई अंतर नही होता । वही कुण्डली मुफत में उपलब्ध साफटवेयरों के आधार पर अक्षांस देशान्तर व समय संस्कार के उचित प्रवृष्टि के बाद आप मुफत में पा सकते हैं जो तथाकथित ज्योतिष हजारों रूपयों में पंदान करते हैं ।
ज्योतिष की व्यावसायिकता में वृद्धि का एक कारण और रहा है जिसका संबंध मानसिकता से है । दशानुसार व गोचरवश ग्रहों के भ्रमण का व्यक्ति के जीवन पर पडने वाले कुप्रभावों का इस प्रकार विश्लेषण कि जातक भय के वशीभूत होकर नग व नगीनों के पीछे भगता है या तो पूजा अनुष्ठान हेतु उदघत होता है । इन दोनों कार्यों से ज्योतिषी को भय सं धनउपार्जन का सरल राह मिल जाता है । गणना की तृटि, नगो की अशुद्धता या पूजा अनुष्ठान में पंडितों की स्वार्थता और ८० प्रतिशत उस जातक की इच्दाशक्ति में कमी के कारण असफलता, हानि, अपयश मिलने लगाता है जो जीवन का सामान्य क्रम है तब जातक आलोचना करने लगता है और ज्योतिष फिर बदनाम होता है ।
परिस्थितियों के प्रति भय दिखाना पंडितों का वैदिक काल के बाद धन व वैभव प्राप्ति का साधन रहा है पाराशर होरा शास्त्र का एक उदाहरण देखिये - यो नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्योतिषं खलु निन्दति । रौरवं नरकं भुक्त्वा चान्धत्वं चान्यजन्मनि ।। (जो मनुष्य ईस शास्त्र को न जानते हुए ज्योतिषशास्त्र की निंदा करता है, वह रौरव नरक को भोग कर दूसरे जनम में अंधा होता है ।।) इसी क्रम में समय समय पर नये नये भयंकर योग प्रकट हुए थोथे परंपरायें विकसित की गयी जो वैदिक ग्रंथों में भी नही थे । शायद इसीलिए ज्योतिष एक विवादास्पद विषय हो गया । संजीव तिवारी |